कांग्रेस का सूरत विभाजन 1907 ( Surat Split Of Congress 1907 )
Surat Split Of Congress 1907 भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। जानें किन कारणों से कांग्रेस में विभाजन हुआ, इसके प्रमुख नेता कौन थे, और इस घटना का आज़ादी की लड़ाई पर क्या प्रभाव पड़ा। सरल हिंदी में पढ़ें सूरत विभाजन की पूरी कहानी।”
आज हम कांग्रेस का सूरत विभाजन 1907 ( Surat Split Of Congress 1907 ) के बारे में जानने वाले है।
स्वतंत्रता आंदोलन के प्रथम चरण में जबकि क्रांतिकारी आंदोलन धीरे-धीरे गति पकड़ रहा था। दिसंबर 1960 में कांग्रेस का सूरत विभाजन हुआ, इसका प्रमुख कारण कांग्रेस में दो विपरीत विचारधाराओं का उदय होना था.
1905 में जबकि कांग्रेस का अधिवेशन गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में बनारस में संपन्न हुआ, तो उदारवादियों एवं क्रांतिकारियों के मतभेद खुलकर सामने आ गए। इस अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक ने नरमपंथियों की ब्रिटिश सरकार के प्रति उदार एवं सहयोग की नीति की कटु आलोचना की।
तिलक की मंशा थी कि स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का पूरे बंगाल तथा देश के अन्य भागों में तेजी से विस्तार किया जाए। तथा इसमें अन्य संस्थाओं (तथा सरकारी सेवाओं ,न्यायालय ,व्यवस्थापिका, सभाओं इत्यादि) को सम्मिलित कर इस राष्ट्रवादी आंदोलन का स्वरूप दिया जाए। जबकि उदारवादी इस आंदोलन को केवल बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे। तथा अन्य संस्थाओं को इस आंदोलन में सम्मिलित करने के पक्ष में नहीं थे।
क्रांतिकारी चाहते थे कि बनारस अधिवेशन में उनके प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया जाए ,जबकि उदारवादियों का मत था कि बंगाल विभाजन का विरोध संवैधानिक तरीके से किया जाए। तथा उन्होंने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करने की नीति का समर्थन नहीं किया। अंततः बीच का रास्ता निकालते हुए एक मध्य मार्ग की प्रस्ताव पारित किया गया ,जिसमें कर्जन की प्रतिक्रिया वादी नीतियों तथा बंगाल विभाजन की आलोचना की गई। तथा स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का समर्थन किया गया। इससे कुछ समय के लिए कांग्रेस का विभाजन टल गया।
दिसंबर 1906 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में तत्कालीन सांप्रदायिक दंगों एवं क्रांतिकारी आतंकवाद तथा उग्रवादियों की लोकप्रियता में वृद्धि के कारण उदारवादियों का प्रभाव कम हो गया। इस अधिवेशन में क्रांतिकारी बाल गंगाधर तिलक या लाला लाजपत राय को अध्यक्ष बनना चाहते थे। जबकि नरम पन्थियों ने इस पद हेतु डॉक्टर रासबिहारी घोष का नाम प्रस्तावित किया। अंत में दादा भाई नौरोजी सर्वसम्मति से अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए।
तथा ब्रिटेन या अन्य उपनिवेशों की तरह स्वराज या स्वशासन को कांग्रेस ने अपना लक्ष्य घोषित किया। स्वदेशी ,बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थन में भी एक प्रस्ताव पारित किया गया। इस अधिवेशन में प्रथम बार स्वराज शब्द का उपयोग किया गया। किंतु इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई। जिससे बाद में इस विषय पर उदारवादियों एवं क्रांतिकारियों में बहस छिड़ गई।
कोलकाता अधिवेशन की उपलब्धियां से उत्साहित होकर क्रांतिकारियो ने अहिंसात्मक प्रतिरोध तथा शिक्षण संस्थानों व्यवस्थापिका सभाओं एवं नगर निकायों इत्यादि का बहिष्कार करने की मांग प्रारंभ कर दी। कोलकाता अधिवेशन में उदारवादियों के प्रस्ताव को ज्यादा महत्व न मिलने के कारण भी उनमें निराशा बढ़ी।
धीरे-धीरे दोनों पक्षों में मतभेद बढ़ने लगे। क्रांतिकारियों का मानना था कि इस समय भारतीयों में अभूतपूर्व उत्साह है तथा स्वतंत्रता आंदोलन को पूर्ण रूपेन प्रारंभ करने का यह उपयुक्त समय है। उनका मत था कि अब वह समय आ गया है जब ब्रिटिश शासन पर आघात किया जाए। तथा उसे जड़ से उखाड़ फेंका जाए। उन्होंने निष्कर्ष निकला की उदारवादी इस कार्य के लिए अनुपयुक्त है तथा उन्हें स्वतंत्रता अभियान से अलग कर दिया जाए।
दूसरी और उदारवादियों ने भी निष्कर्ष निकला कि इस समय क्रन्तिकारी के साम्राज्यवाद विरोधी अभियान से उनका जुड़ना उचित नहीं है। क्योंकि ब्रिटिश सरकार को हटाने पर तुले हुए उदारवादी यह विश्वास करने वालों की निकाय सुधारो के द्वारा प्रशासन में भारतीयों की भागीदारी का उनका स्वप्न में पूरा हो जाएगा। नरमपंथियों ने तर्क दिया कि अतिवादियों के दबाव में कांग्रेस को जल्दबाजी में ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे भारतीय हितों को नुकसान पहुंचे। उदारवादी अतिवादियों के साथ किसी प्रकार का सहयोग या संबंध नहीं चाहते थे.
उदारवादी यह अनुमान नहीं लगा सके की सरकार द्वारा काउंसिल सुधारो का वास्तविक उद्देश्य अतिवादियों को उदारवादियों से पृथक करना है। ना की उदारवादियों को उपहार देना। अतिवादियों ने भी नरम पंक्तियों के हर कदम का गलत अनुमान लगाया। दोनों ही पक्ष इस बात की महत्ता से परिचित नहीं हो सके कि भारत जैसे विशाल औपनिवेशिक देश को विदेशी शासन से मुक्ति दिलाने के लिए विशाल राष्ट्रवादी आंदोलन एवं आपसी एकता अत्यंत आवश्यक है.
अतिवादी चाहते थे कि 1960 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन नागपुर मध्य प्रांत में आयोजित किया जाए तथा बाल गंगाधर तिलक या लाला लाजपत राय इससे अध्यक्ष चुने जाए। आंदोलन तथा राष्ट्रीय शिक्षा के पूर्ण समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया जाए। दूसरी और उदारवादी चाहते थे कि 1907 का अधिवेशन सूरत में आयोजित किया जाए। तथा किसी हालत में तिलक को अध्यक्ष न बनने दिया जाए। उन्होंने मेजबान प्रांत के नेता को कांग्रेस का अध्यक्ष न चुने जाने की वकालत की ,क्योंकि सूरत तिलक के गृह प्रांत मुंबई के अंतर्गत आता था।
उन्होंने रासबिहारी घोष को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने तथा स्वदेशी बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रस्ताव को वापस लेने की जोरदार मांग की। इस समय दोनों ही पक्षों ने अड़ियल रुख अपना लिया। तथा समझौते की किसी भी संभावना से इनकार कर दिया। इन परिस्थितियों में कांग्रेस में विभाजन सुनिश्चित हो गया। क्योंकि इस समय कांग्रेस में उदारवादियों का वर्चस्व था। फलत उन्होंने ब्रिटिश शासन की सीमा में रहते हुए स्वराज या स्वशासन की मांग की। तथा संवैधानिक तरीके से ही आंदोलन जारी रखने का निर्णय लिया।
इसके पश्चात सरकार ने अतिवादियों पर सुनियोजित हमले प्रारंभ कर दिए 1907 से 1911 के मध्य सरकार विरोधी आंदोलन को कुचलना के लिए पांच नए कानून बनाए गए। इन कानून में राजद्रोह सभा अधिनियम 1907, भारतीय समाचार पत्र अधिनियम 1908 ,फौजदारी कानून संशोधित अधिनियम 1908 तथा भारतीय प्रेस अधिनियम 1910 प्रमुख थे। मुख्य अतिवादी नेता बाल गंगाधर तिलक को गिरफ्तार कर मंडाले जेल (बर्मा ) भेज दिया गया।
इसी समय विपिन चंद्र पाल तथा अरविंद घोष ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। तथा लाला लाजपत राय विदेश चले गए। अतिवादी आंदोलन को आगे जारी रखने में असफल रहे अतिवादियोकि की लोकप्रियता भी काम हो गई। तथा वे युवाओं का सहयोग या समर्थन प्राप्त करने में नाकाम रहे 1908 के पश्चात कुछ समय के लिए राष्ट्रीय आंदोलन का अनुवाद ठंडा पड़ गया। इसमें दोबारा तेजी तब आई जब 1914 में तिलक जेल से रिहा हुए.
FAQ
Q.1 1907 में सूरत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विभाजन का मुख्य कारण क्या था?
ANS. 1907 में सूरत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विभाजन का मुख्य कारण था पार्टी के दो धड़ों के बीच मतभेद। एक ओर नरमपंथी नेता थे, जिनका मानना था कि अंग्रेज़ों से बातचीत और सुधार के जरिए स्वतंत्रता हासिल की जा सकती है। इनके प्रमुख नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे। दूसरी ओर गरमपंथी नेता थे, जो तेज़ और सख्त कदम उठाने के पक्ष में थे, जैसे कि स्वराज की मांग और आंदोलन। इनमें बाल गंगाधर तिलक प्रमुख थे। सूरत अधिवेशन में दोनों धड़ों के बीच बढ़ते मतभेद ने पार्टी को विभाजित कर दिया।
Q.2 कांग्रेस का दूसरा विभाजन क्यों हुआ था?
ANS. कांग्रेस का दूसरा विभाजन 1916 में हुआ था, और इसका मुख्य कारण पार्टी के अंदर बढ़ते विचारधारात्मक मतभेद थे। यह विभाजन नरमपंथी और गरमपंथी धड़ों के बीच था। नरमपंथी नेता अंग्रेज़ों के साथ सुधारवादी तरीके अपनाने के पक्ष में थे, जबकि गरमपंथी नेता सीधे स्वराज की मांग कर रहे थे और तेज़ आंदोलन चाहते थे। बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट ने स्वराज की मांग को लेकर गरमपंथियों का नेतृत्व किया, जिससे कांग्रेस के अंदर मतभेद और गहरे हो गए, और पार्टी विभाजित हो गई।
Q.3 कांग्रेस का विभाजन कब और कहां हुआ था?
ANS. कांग्रेस का विभाजन 1907 में सूरत में हुआ था। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर दो प्रमुख धड़े बन गए थे—नरमपंथी और गरमपंथी। नरमपंथी नेता, जैसे गोपाल कृष्ण गोखले, सुधारवादी तरीके से अंग्रेज़ों से स्वतंत्रता की मांग करना चाहते थे, जबकि गरमपंथी नेता, जैसे बाल गंगाधर तिलक, स्वराज की सीधी और त्वरित मांग कर रहे थे। सूरत अधिवेशन में इन दोनों धड़ों के बीच मतभेद इतना बढ़ गया कि पार्टी विभाजित हो गई।
Q.4 सूरत अधिवेशन 1907 अध्यक्ष
ANS. 1907 के सूरत अधिवेशन के अध्यक्ष रास बिहारी बोस थे। इस अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन हुआ था, जो नरमपंथी और गरमपंथी नेताओं के बीच मतभेदों के कारण हुआ। अधिवेशन का माहौल काफी तनावपूर्ण था, और दोनों धड़ों के बीच विचारधारात्मक टकराव के चलते कांग्रेस में विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो गई, जिससे पार्टी दो हिस्सों में बंट गई।
Q.5 सूरत विभाजन के नेता कौन थे
ANS. सूरत विभाजन के प्रमुख नेता दो धड़ों में बंटे हुए थे। नरमपंथी धड़े के नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे, जो अंग्रेज़ों के साथ सुधारवादी तरीकों से काम करने और धीरे-धीरे स्वतंत्रता प्राप्त करने के पक्षधर थे। वहीं, गरमपंथी धड़े का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक कर रहे थे, जो स्वराज की तुरंत मांग और आंदोलन के समर्थक थे। इन दोनों धड़ों के बीच मतभेद सूरत अधिवेशन 1907 में इतना गहरा गया कि कांग्रेस का विभाजन हो गया।